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देवता: इन्द्र: ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

न सोम॒ इन्द्र॒मसु॑तो ममाद॒ नाब्र॑ह्माणो म॒घवा॑नं सु॒तासः॑। तस्मा॑ उ॒क्थं ज॑नये॒ यज्जुजो॑षन्नृ॒वन्नवी॑यः शृ॒णव॒द्यथा॑ नः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na soma indram asuto mamāda nābrahmāṇo maghavānaṁ sutāsaḥ | tasmā ukthaṁ janaye yaj jujoṣan nṛvan navīyaḥ śṛṇavad yathā naḥ ||

पद पाठ

न। सोमः॑। इन्द्र॑म्। असु॑तः। म॒मा॒द॒। न। अब्र॑ह्माणः। म॒घऽवा॑नम्। सु॒तासः॑। तस्मै॑। उ॒क्थम्। ज॒न॒ये॒। यत्। जुजो॑षत्। नृ॒ऽवत्। नवी॑यः। शृ॒णव॑त्। यथा॑। नः॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:26» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँच ऋचावाले छब्बीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में जीव का उपकार कौन नहीं कर सकता, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! (यथा) जैसे (असुतः) न उत्पन्न हुआ (सोमः) महौषधियों का रस यह (इन्द्रम्) इन्द्रियों के स्वामी जीव को (न) नहीं (ममाद) हर्षित करता वा जैसे (अब्रह्माणः) चार वेदों का वेत्ता जो नहीं वे (सुतासः) उत्पन्न हुए (मघवानम्) परमपूजित धनवान् को (न) नहीं आनन्दित करते हैं, वह इन्द्रियस्वामी जीव (यत्) जिस (नृवत्) नृवत् अर्थात् जिसमें बहुत नायक मनुष्य विद्यमान और (नवीयः) अत्यन्त नवीन (उक्थम्) उपदेश को (जुजोषत्) सेवता है (नः) हम लोगों को (शृणवत्) सुनता है (तस्मै) उसके लिये सब प्रकार के विधानों को मैं (जनये) उत्पन्न करता हूँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे बुद्धिमान् मनुष्यो ! जैसे उत्पन्न हुआ पदार्थ जीव को आनन्द देता है, जैसे यथावत् वेदविद्या और आप्तजन धार्मिक धनाढ्य को विद्वान् करते हैं, वैसे उत्पन्न हुई विद्या आत्मा को सुख देती है और शुभगुण धनाढ्य को बढ़ाते हैं और सत्संग से ही मनुष्यत्व को जीव प्राप्त होता है ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ जीवमुपकर्तुं किं न शक्नोतीत्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथाऽसुतः सोमो यमिन्द्रं न ममाद यथाऽब्रह्माणं सुतासो मघवानं नानन्दयन्ति स इन्द्रो यन्नृवन्नवीय उक्थं जुजोषन्नोऽस्माञ्च्छृणवत्तस्मै सर्वं विधानमहं जनये ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) निषेधे (सोमः) महौषधिरसः (इन्द्रम्) इन्द्रियस्वामिनं जीवम् (असुतः) अनुत्पन्नः (ममाद) हर्षयति (न) (अब्रह्माणः) अचतुर्वेदविदः (मघवानम्) परमपूजितधनवन्तम् (सुतासः) उत्पन्नाः (तस्मै) (उक्थम्) प्रशंसनीयमुपदेशम् (जनये) उत्पादये (यत्) (जुजोषत्) सेवते (नृवत्) बहवो नायका विद्यन्ते यस्मिँस्तत् (नवीयः) अतिशयेन नवीनम् (शृणवत्) शृणोति (यथा) (नः) अस्मान् ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे विपश्चितो ! यथोत्पन्नः पदार्थो जीवमानन्दयति यथायथा वेदविद्या आप्ता जना धार्मिकं धनाढ्यं विपश्चितं कुर्वन्ति तथोत्पन्ना विद्याऽऽत्मानं सुखयति शुभा गुणा धनाढ्यं वर्धयन्ति सत्सङ्गेनैव मनुष्यत्वं प्राप्नोति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

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भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे बुद्धिमान माणसांनो! जसा उत्पन्न झालेला पदार्थ जीवाला आनंद देतो, जसे यथायोग्य वेदविद्या व विद्वान जन धार्मिक श्रीमंताला विद्वान करतात तशी विद्या आत्म्याला सुख देते. शुभ गुण धनवानाला वाढवितात तसेच सत्संगानेच जीवाला मनुष्यत्व प्राप्त होते. ॥ १ ॥